॥श्रीकृष्णाय नमः॥ ॥श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः॥ ॥श्रीमन्महाप्रभोः चरणकमलेभ्योः शरणं प्रपद्ये॥
Refutation of Karsandas Mulji’s October 1860 editorial article in Satya Prakash
(Official Translation of an Editorial Article in the “Satya Prakash,” Gujrati Newspaper, of the 21st October, 1860.)
As published in “Report of The Maharaj Libel Case, And of The Bhattia Conspiracy Case, Connected with It”,Printed at the Bombay Gazette Press, 1862, which is freely accessible at the Internet Archive https://archive.org/details/reportofmaharajl00yadurich
Author: Goswami Umang (Vrajeshwaracharya)
Year of Publication: 2024
Published at: https://decolonization.azurewebsites.net/
श्रीकृष्णाय नमः। श्रीमन्महाप्रभोः चरणकमलेभ्योः शरणं प्रपद्ये। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण एवं श्रीमदाचार्यचरण जगद्गुरू श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु जी के चरणकमलों में अनेकानेक बार दंडवत प्रणाम कर आपके महदनुग्रहात्मक आशीर्वाद से “The Primitive Religion Of The Hindus And The Present Heter Opinions” लेख के खण्डन का शुभारम्भ करता हुँ,
The Primitive Religion of The Hindus and The Present Heterodox Opinions
IN the Purans and other Shastras of the Hindus it is stated that in the Kaliyug there will arise false religions and heresies, and impostors and heretics will cause adverse persuasions and adverse religious systems to be established. According to the Hindu Shastras five thousand years have now passed away since the commencement of the Kaliyug. From the Hindu Shastras themselves it is demonstrated that during this period of five thousand years as many new persuasions and religious systems as have arisen the Hindus, should all be considered spurious heresies. Now, four. hundred years have not as yet elapsed since the birth of Valabh, the projenitor of the Maharajas. In the books of the Vaishnava persuasion it is written that the birth of Valabhacharya took place on the 11th of Waisakh Vad of Samvant 1535, the day of the week Sunday; since this event 381 years have elapsed to this day, and since the beginning of the Kaliyug five thousand years have passed. The sect of Valabhacharya then originated within the Kaliyug itself. In the same way as the followers of Dadu, the followers of Sadhu, the Ramsnehi, the Ramanandi, the Shejanandi and other sects arose; so the sect of Valabhacharya arose; all these sects have arisen in the Kaliyug, therefore according to the declarations of the Hindu Shastras they must be heterodox.
कलियुग में धर्म-समाज की क्या स्थिति हो रही हैं इस विषय पर श्रीमद् वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी ने “कृष्णाश्रय”आदि ग्रंथों में प्रकाश डाला हैं।[1]
श्रीमन्महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का जन्म कलियुग के प्रथम 5000 वर्षों में हुआ अथवा नहीं, इस विषय को समझने हेतु सर्वप्रथम जन्म समय कलि-संवत क्या था इसका निर्णय करना होगा। और यह निर्णय करने के लिए उस से भी पहले कलियुग के प्रारम्भ का निर्धारण करना पड़ेगा। अतः कलियुग के प्रारंभ पर विचार करते हैं।
पारंपरिक प्रमाणों, ऐतिहासिक शिला-लेखों, archaeological inscriptions, पूर्व-काल में हुए महापुरुषों के लेखों, एसे सभी sources of information आदि पर अध्ययन-शोध-research-debates सेंकड़ों सालों पूर्व ही तत् - तत् विषयों के महा विद्वानों द्वारा पूर्ण चुकी हैं।
यह सर्वमान्य सिद्ध हो चुका हैं अतः universal-fact हैं की Gregorian calendar के year 3102BC (ईसा-पूर्व) को कलियुग का प्रारंभ हुआ था।[2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12]
श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभु का जन्म वैशाख कृष्ण एकादशी (वरुथिनी एकादशी) विक्रम संवत 1535 में हुआ था। अगर इस जन्म दिनांक को Gregorian calendar system में convert किया जाए तो Gregorian calendar year 1478 आता हैं जिसे कलि-सम्वत system में convert करने पर श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु का जन्म कलि संवत 4579 वर्ष में हुआ था यह सिद्ध होता हैं।[13]
अर्थात महाप्रभुजी का जन्म कलियुग के 5000 वर्ष पूर्ण होने के 421 वर्ष पहले ही हो गया था। अतः करसनदास मूलजी का कहना कि “The sect of Valabhacharya then originated within the Kaliyug itself.” सर्वथा असत्य सिद्ध होता हैं।
The Primitive Religion of The Hindus and The Present Heterodox Opinions
Jadunathjee Maharaj says that in the same way as someone goes from the gates of the fort to proceed to Walkeshwar and someone to Byculla, so exactly the original courses of the Veds and the Purans having gone forward, have diverged into different ways. What a deceitful proposition this is. Out of one religious system ten or fifteen by-ways must not branch off. The course of religion and of morals must be one only. What necessity is there to quit the straight road by which to go to Walkeshwar, and take the circuitous route of Byculla? Each sectary has made every other sectary a heretic, and one has scattered dust upon the other; what then is the necessity for acting thus? But we have already made known that as regards the weapons with which the Maharaj has come forth to defend himself, those very weapons will oppose the Maharaj, and annoy him. The Maharaj considers the Hindu Shastras as the work of God; he cannot then assert any particular statement of the Hindu Shastras is false. The said Maharaj cannot allege that the statement that in the Kaliyug heretical opinions will arise, is false. Then like several other sects, the sect of the Maharajas has arisen in the Kaliyug, consequently it is established by the Hindu Shastras that it is a false and heretical one.
जदुनाथजी महाराज ने जो उक्ति कही हैं उसे उसके मूल परिपेक्ष्य के (out-of-context) बाहर लेजा कर एवं तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया हैं। महाराज के वचनो को word-to-word quote करने की बजाए, उनके वचनों की अपनी खुद की समझ को editorial article के लेखक ने महाराज के नाम पर भ्रामक तरीके से प्रस्तुत कर दिया। जदुनाथजी महाराज ने जो उक्ति कही हैं वह सिर्फ और सिर्फ दुनिया में जो हुआ हैं वह ही बताया हैं अर्थात सिर्फ इतिहास बताया हैं। उस विषय में महाराज ने खुद का अथवा संप्रदाय का मत नहीं प्रस्तुत किया हैं। वेद नित्य हैं सनातन हैं एवं अपौरुषेय हैं। पुराणों के निर्माण कर्ता हैं।
समय के साथ भले अनेकानेक धर्मग्रंथ प्रगट हुए हो, परन्तु सभी वेद सम्मत ही हैं और जो वेद सम्मत न हो वो आदरणीय या पालन करने के योग्य भी नहीं हैं ना ही उन्हें सनातन हिन्दु धर्म बुलाया जाता हैं। सभी मार्ग/पथ एक ही गंतव्य तक नहीं ले जाते। जिसको जो देव प्रिय होता हैं उसको वो ही प्राप्त होते हैं।
किस मार्ग पर चले किस पर नहीं क्या करें और क्या नहीं इन प्रश्नों का सर्व समाधान इन
“वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥”[14],
“तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको मुनि र्यस्य वचः प्रमाणम्। धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः॥”[15],
“शिष्टाचारः स्मृतिर् वेदास् त्रिविधं धर्मलक्षणम्।”[16],
“वेदाः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणं धर्मार्थयुक्तं वचनं प्रमाणम्। यस्य प्रमाणं न भवेत् प्रमाणं न तस्य कुर्याद् वचनं प्रमाणम्॥”[17],
“श्रुतिस्मृतिविहितो धर्मः तदभावे शिष्टाचारः प्रमाणम् ॥” ,
“सदाचार: स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम्।”[18],
“अथातः सामयाचारिकान् धर्मान् व्याख्यास्यामः। धर्मज्ञ-समयः प्रमाणम्। वेदाश् च।”[19],
“प्रमाणान्तराच्च वेदो बलिष्ठः।”[20],
“वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश् चैव साधूनाम् आत्मनस् तुष्टिर् एव च॥”[21],
“इतिहासपुराणेभ्यो वेदं समुपबृंहयेत्। बिभेत्य् अल्पश्रुताद् वेदः माम् अयं प्रतरिष्यति॥” [22],
“चत्वारो वेदधर्मज्ञाः परिषत् त्रैविद्यम् एव वा। सा भ्रूते यं स धर्मः स्याद् एको वाध्यात्मवित्तमः॥” [23],
“ऋग्वेदविद् यजुर्विच् च सामवेदविद् एव च। त्र्यवरा परिषज् ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये ॥”[24],
इत्यादि वाक्यों के अनुसार करना चाहिए ।
श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु के वल्लभ संप्रदाय(पुष्टिमार्ग) में वेद हि धर्म का मूल माना गया हैं एवं वेदादि मत सम्मत जो कुछ भी हैं वही मान्य किया गया है श्रीमदाचार्य श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु द्वारा।[25][26]
श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु ने स्वयं तो यहाँ तक आज्ञा करदी हैं की “प्रमाणान्तराच्च वेदो बलिष्ठः।” अर्थात विभिन्न प्रमानवाक्यों में बीच में वेद का प्रमाण बलवान हैं।[27]
आपश्री ने तो वेदोक्तधर्म का पालन न करने वालों को अधर्मी, पाखण्डी कहाँ हैं उनकी निंदा करी हैं।[28] वल्लभ संप्रदाय(पुष्टिमार्ग) में श्रुति-स्मृति-कल्प-इतिहास-पुराण-आगम-आदि के अनुसार सार में सार यह तक स्वीकार किया गया हैं की
“श्रुतिस्स्मृति: ममैवाज्ञे यस्तामुल्लङ्घ्य वर्तते। आज्ञाच्छेदी ममद्रोही मद्भक्तोsपि न वैष्णव:॥”
एवं
“श्रुतिस्मृति ममैवाज्ञे य उल्लङ्घ्य प्रवर्तते। आज्ञाभङ्गी मम द्वेषी नरके पतति ध्रुवम् ॥”[29]
जेसे अनेक कठोर वचनो को भी शत-प्रतिशत सत्य माना गया हैं।
आगे editorial article के लेखक करसनदास मूलजी वापस पिष्ट-पेषण करते हुए कलियुग में उत्पन्न सभी धर्मों/संप्रदायों को अधर्म/पाखण्ड सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। अल्प पठित होने के कारण संभवतः करसनदास मूलजी को यह भी पता नहीं होगा की सिर्फ धर्म और धर्म ही नहीं परंतु स्वधर्म-परधर्म-धर्माभास यह भी होते हैं।
उनको लगता होगा की सनातन हिन्दु धर्म एवं तदङ्गभूत वल्लभसंप्रदाय के अनुयायी उनके इस बात में आजाएंगे। हम पूर्व ही सिद्ध कर चुके हैं की सनातन हिन्दु धर्म के अभिन्न+अविभाज्य अङ्ग वल्लभसंप्रदाय(पुष्टिमार्ग) एवं उसके मूल आचार्य श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु का जन्म कलियुग के 5000 वर्ष पूर्ण होने के बहुत पहले ही हो गया था। केवल यह कह देने मात्र से की कलियुग में अधर्म-पाखंडी मतो का जन्म होग, ऐसा साबित नहीं होता की कलियुग में उत्पन्न सभ कुछ spurious heresy ही होगा।
संभवतः शास्त्राध्यन ना होने के कारण करसनदास मूलजी को पता नहीं होगा की, कलियुग भी अन्य पूर्वयुगो की तरह अनेक भागों में विभक्त हैं। प्रत्येक युग के मुख्य काल के पहले एवं बाद में संध्याकाल होता हैं। वर्तमान में कलियुग का प्रथम चरण चल रहा हैं। कलियुग के प्रारंभ के पाञ्चसहस्त्र वर्षों तक गंगादि पवित्र तीर्थ एवं उनके अधिष्ठात्री देव-देवता पृथ्वी पर विद्यमान रहेंगे तत्पश्चात वह अपने अपने स्थान को प्रस्थान करेंगे।[30]
एवं अगले पञ्च-सहस्त्र वर्षों तक(अर्थात कलियुग के प्रारम्भ से दस-सहस्त्र वर्षों तक) धर्माचरण करने वाले भगवद्भक्त भक्ति-योगी, वेदादि शास्त्र, वेदादि शास्त्रों के अध्ययन करने वाले विद्वान ब्राह्मण, देव मन्दिर, एवं प्रतिमा में देव-देवता की उपस्थिति पृथ्वी पर रहेंगी एवं इनके फलस्वरूप वेदों का प्रचालन और वर्णाश्रम व्यवस्था भी पृथ्वी पर रहेंगी। इन सभी के धर्म बल से कलियुग के स्वर्णिम युग प्रथम दससहस्त्र वर्षों तक धर्म का सम्पूर्ण ह्रास नहीं होगा।[31][32] जिन हिन्दु पुराणादि शास्त्रों का हवाला करसनदास मूलजी दे रहे थे उन्हीं हिन्दु पुराणादि शास्त्रों के यह वचन भी हैं।
अगर शास्त्र के दोनों वाक्यों का सम्यक प्रकार से विचार करें तो यह निष्कर्ष निकलेगा की कलियुग में होने वाली सभी गलत-कार्य कम-मात्रा में कम-सङ्ख्या में होगी। तद्पश्चात धर्म सर्वथाा लुप्त हो जाएगा और जो कुछ भी कलियुग के स्वर्णिम युग प्रथम दस-सहस्त्र वर्षों के बाद होगा वह सभ अधर्म-पाखण्ड होगा। अतः जो बात करसनदास मूलजी कहना चाह रहे हैं वो कलियुग के प्रथम दससहस्त्र वर्षों के बाद ही घटित होगा ना कि पहले।
वैदिक परंपरा प्राप्त गुरु के अधीन हो कर संस्कृत commentary-भाष्यादि सहित सभी शास्त्रो का अध्ययन करना तो दूर जिस व्यक्ति को स्वयं संस्कृत न आती हो जो आँख-कान-दिमाग सब बंद कर दूसरों के करे गए अनुवाद पढ़ता हो, जो व्यक्ति प्रारंभ से missionaries से अत्यंत प्रभावित रहा हुआ हो, जो सिर्फ जन्म से भारतीय हो परंतु विचारों से पूर्णतया European हो ऐसा व्यक्ति करसनदास मूलजी धर्म-अधर्म के विषय में निर्णय करने के लिए अर्वथा अयोग्य-अनुपयुक्त होगा अतः उसका मत मान्य हो ही नहीं सकता।[33]
जिस व्यक्ति को यह ही न पता हो कि जिस धर्म को वो सुधारना चाह रहा हैं वो आखिर में क्या हैं, ऐसा व्यक्ति अगर समाज-सुधार का कार्य करेगा तो और वह जाने-अनजाने में समाज को क्षतिग्रस्त ही कर बैठेगा फिर एसे व्यक्ति को समाज-सुधारक बोलना असत्य एवं अनुचित ही होगा।
The Primitive Religion of The Hindus and The Present Heterodox Opinions
The sect of the Maharajas is heretical and one delusive to simple people; that is proved by the genuine books of the Veds, the Purans, &c., according to what is intimated above. Not only this, but also from the works composed by the Maharajas, it is proved that the Maharajas have raised up nothing but a new heresy and disorder. Behold with regard to the subject of Bramh how Gokulnathji has amplified the original stanza, what a commentary he has made:-
करसनदास मूलजी का कहना हैं की वेदों-पुराणों की वास्तविक पुस्तकों अनुसार ऐसा सिद्ध होता है की, वल्लभ सम्प्रदाय(पुष्टिमार्ग) heretical हैं simple लोगों के लिए भ्रामक और हिन्दु धर्म से पथभ्रष्ट करने वाला हैं, जो उनहोने उप्पर बताया हैं।
सर्वप्रथम तो “genuine books of the Veds, the Purans, &c.,” क्या होता हैं ? क्या किसी विशेष वर्ग (Indologist-missionary-orientalist) की अनुवादित/संपादित को क्या यह परम्परा प्राप्त वेदज्ञ ब्राह्मणों से अथवा अथा-परिश्रम कर श्रुतियों, अनेक शाखाओ वेदों का घनान्तपर्यन्त अध्ययन करने वाले श्रौतज्ञों विप्रो से जिन्हे पूरा का पूरा वेद पीढ़ियों से कंठस्थ है उन से अथवा सहस्त्र वर्षों पुरानी वेदों की पान्डुलीपियों से ज़्यादा प्रामाणिक मानते हैं ?
वेसे भी “according to what is intimated above.” ऐसा कहना अपने आप में करसनदास मूलजी के लिए हास्यास्पद हैं क्योंकि ना तो उन्हे कोई ग्रंथ का अध्ययन है, ना उन्हे संस्कृत आती हैं, नया ही उन्हे भारतीय सभ्यता पसंद है और ना ही वेद-पुराणो से उन्होंने कोई प्रमाण-वाक्य quote किया सिर्फ और सिर्फ झूट को अनेकानेक बार दोहराया। उनके उपर कहे गए वाक्यों/आक्षेपों का वहाँ सम्यक-प्रकारेण निराकरण कर चुके होने से उस को वापस यहां नहीं दोहरायेंगे।
बार-बार वह एक ही बात इसलिए दोहरा रहें है क्योंकि उनके पास बोलने के लिए कोई विषय नहीं और इसके अलावा वह चाह रहे होंगे की सत्य का एक illusion पैदा कर सके भोले-भाले हिन्दुओ के मन में। Nazis की भाति वो प्रयास कर रहे हैं की “Repeat a lie often enough and it becomes the truth” इस law of propaganda का प्रयोग करते हुए वह भोले-भाले हिन्दुओ को भ्रमित कर सके। [34]
अब आगे चल कर वही असत्य आरोप लगाते हुए की वल्लभ संप्रदाय के आचार्यों ने पाखण्ड-अधर्म का निर्माण किया है ऐसा कह कर, करसनदास मूलजी यह दिखाने का कु-प्रयास करते हैं की देखो-देखो ब्रह्म के विषय में श्रीगोकुलनाथजी महराजश्री ने कैसे मूल श्लोक का विस्तार किया है कैसे उन पर टिप्पणी करी हैं। अपनी आदत से लाचार होते हुए बिना उद्धरित किये जाने वाले वाक्य कहा लिखे हैं उनका पता बताने के बजाय वह सीधे उन वाक्यों को उद्धरित करते हैं।
किसी को भी बिना अंधेरे में रखे मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हु की जिन वाक्यों को क्वोट किया गया हैं वह जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु के स्वरचित ग्रंथ सिद्धान्तरहस्य के श्लोक क्रमाङ्क 6(छः)पर जो श्रीगोकुलनाथजी महराजश्री की commentary(टीका) में से लिया गया हैं। [35]
The Primitive Religion of The Hindus and The Present Heterodox Opinions
तस्मादादौ स्वोप भोगात्पूर्वमेव सर्ववस्तुपदेन भार्यापुत्रादीनाम पिसमर्पणकर्तव्यं विवाहानंतरं स्वोपभोगेसर्वकार्ये सर्वकार्यनि मित तत्तत्कार्योपभोगिवस्तुसमर्पणंकार्यं सर्मपणंकृत्वापश्वात्ता नितानिकार्याणिकर्तव्यानत्यर्थः॥ १ ॥
“Consequently before he himself has enjoyed her, he should make over his own married wife (to the Maharaj), and he should also make over (to him) his sons and daughters. After having got married, be should before having himself enjoyed his wife make an offering of her (to the Maharaj); after which he should apply her to his own use."
करसनदास मूलजी ने जो उद्धरण उसके लेख में दिया था उस में काफी typographical mistakes हैं और उपर से उनकी प्रस्तुति भी एसे करी थी जिस से सरलता से समझा भी ना जा सके।
अब अपन श्रीगोकुलनाथजी की commentary को देख लेते हैं।
“तस्माद् आदौ स्वोपभोगात् पूर्वम् एव सर्ववस्तु-पदेन भार्या-पुत्र-आदी-नाम् अपि समर्पणम् कर्तव्यम्। विवाह अनन्तरम् स्वोपयोगात् पूर्वम् एव स्वोपयोगार्थम् एव तत् निवेदनम् कर्तव्यम्। एवम् अपि पुत्रोत्पत्त्यनन्तरं अपि पुत्रादीनाम् समर्पणम् कर्तव्यम्। सर्वकार्ये सर्वकार्य निमित्तम् तत् तत् कार्योपयोगि वस्तु समर्पणम् कार्यम्। समर्पणम् कृत्वा पश्चात् तानि तानि कार्याणि कर्तव्यानि इति अर्थः। अत्र कश्चित्पूर्वपक्षी शङ्कते। ‘ननु भक्तिमार्गे भगवन् निवेदितस्यैवम् वस्तुनः स्वार्थं विनियोगः कर्तव्यः, न तु अनिवेदितस्य’ इति नियम उक्तः .....”
अब यहाँ गोकुलनाथजी यह व्याख्या कर रहे हैं की स्वयं उपयोग करने से पहले ही उन वस्तुओ का भगवान् को समर्पण कर दो। यहाँ “भार्यापुत्रादीनामपि समर्पणम् कर्तव्यम्।” में से सिर्फ भार्या शब्द पर जोर दिया जा रहा ना की आदि शब्द पर भी। करसनदास मूलजी को अगर संस्कृत थोड़ी से भी आती और वो बिना कोई पूर्वाग्रह के सिर्फ और सिर्फ commentary के अगले दो तीन वाक्य ही पढ़ लेते तो उन्हे समझ आएगा की सिर्फ और सिर्फ भगवान् को ही सर्वसमर्पण करने की बातचल रही हैं।
संस्कृत से english translate करने वाले व्यक्ति को भी भगवान्/पुरुषोत्तम शब्द का English में equivalent शब्द नहीं मिल और उन्हे कुछ शास्त्र की समझ नहीं होने से, अशुद्ध-असत्य-अप्रामाणिक मनमाना अर्थ करते हुए महाराज शब्द को भगवान् की जगह रख दिया।
पुष्टिभक्तिमार्गीय गुरु-आचार्य द्वारा भगवान् से जो भक्त का ब्रह्मसम्बन्ध करवाया जाता हैं। इसी को लेकर पूरा अज्ञान का जाल बिखरा पड़ा हैं। अतः अपन ब्रह्मसम्बन्ध वाला गद्य मंत्र का अवलोकन करने पर सुस्पष्ट हो जाएगा की प्रारम्भ से अंत में “कृष्ण त्वास्मि” तक मंत्र में सिर्फ और सिर्फ भक्त अपने भगवान श्रीकृष्ण को सर्वसमर्पण कर रहा हैं ना की किसी और को। “कृष्णवियोग जनित ताप ... भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मानश्च दारागारपुत्रआप्तवित्तेहापराणी आत्मना सह समर्पयामि दासोऽहं कृष्ण तवास्मि” में पूर्व से लेकर अंत तक वो भक्त “भगवते कृष्णाय” से श्रीकृष्ण को संबोधित कर वो जो जो भी समर्पण कर रहा हैं भगवान् श्रीकृष्ण को वह सभ बोल कर “समर्पयामि” बोलकर वाणी से सर्वसमर्पण कृष्ण को करता है तत्पश्चात क्या कहता हैं “दासोऽहं कृष्ण तवास्मि” मतलब हे भगवान् श्रीकृष्ण मैं आपका दास हु। आत्मनिवेदन करने वाला भक्त-यहाँ सिर्फ स्वयं का ही दासत्व की घोषणा कर रहा हैं ना कि दारागारपुत्रआप्तादि का।
अतः सार में सार यह है की भार्या-पुत्र-पुत्री-आप्तजन इत्यादियों का समर्पण सीधे-साक्षात भगवान् श्रीकृष्ण को ही होता है। ब्रह्मसम्बन्ध भी इसलिए ही होता हैं ताकि व्यक्ति भगवद्सेवा-परिचर्या करसके। सिद्धांतरहस्य को मूल मूल ही अगर पढ़ले तो यह सिद्ध हो जाएगा। और स्पष्टीकरण चाहिए तो विभिन्न आचार्यों विद्वानों की 10-12 commentaryए प्रकाशित हैं उनका स्वाध्याय कर लेवें।
श्रीगोकुलनाथजी की कॉममेंटरी में से “सर्वकार्ये सर्वकार्य निमित्तम् तत् तत् कार्योपयोगि वस्तु समर्पणम् कार्यम्। समर्पणम् कृत्वा पश्चात् तानि तानि कार्याणि कर्तव्यानि इति अर्थः।” का अर्थ जो करसनदास मूलजी व उनके सहायकों ने किया है वह सम्पूर्ण मूल सिद्धांतरहस्य ग्रंथ और उसके उपर की commentaries का वह अत्यंत भ्रामक-असत्य हैं।
इसका सत्य-अर्थ होता हैं की लोकीकवैदिक आदि जीतने भी कर्म करने है उन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं का पहले पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को समर्पण करो तद्पश्चात उनका उस उस कार्य में उपयोग करो।
श्रीवल्लभाचार्यजी महाप्रभु के पौत्र श्रीगोकुलनाथजी इस विषय को बहुत अच्छे से सुस्पष्ट करते हुए समझाते हैं की
“निवेदिभिः स्वमार्गानुसारेण कृतात्मनिवेदिभिः, सर्व लौकिकं वैदिकं च, लौकिकं पुत्रादिविवाहाद्यर्थं, ब्राह्मणभोजनाद्यर्थं स्वोपभोगार्थं च कृतं वैदिकं श्राद्धयागादिकम् । श्राद्धार्थमपि निष्पादितं पाकादिकं सर्वं यागार्थ सम्पादितं घृतानादिकं संभारादिकं च सर्वं भगवते निवेद्यैव भगवन्निवेदनानन्तरं पश्चात्सर्वं कार्यमिति । संभाराणां तदाज्ञापूर्वकमेव करणं निवेदनम् । तथाच स्मर्यते श्रीभागवते सप्तमस्कन्धे 'विष्णोर्निवेदितान्नेन यष्टव्यं देवतान्तरम् । पितृभ्यश्चापि तद्देयं तदानन्त्याय कल्पत' इति वचनादियं भक्तिमार्गमर्यादा । मर्यादा नामानुल्लङ्ख्याज्ञा । यथा वेदादिमर्यादोल्लङ्घनेन कार्यकरणे कर्ता दोषभाग्भवति, तथात्रापि भक्तिमार्गमर्यादोल्लङ्घनेन कार्यकरणे भक्तिमार्गीयोपि दोषभाग्भवतीति ज्ञापनाय स्थितेर्मर्यादात्वमुक्तम् । स्थितिरिति।”
जिसका सरल हिन्दी में भावार्थ होता हैं,
इस प्रकार असमर्पित वस्तु मात्र का त्याग करने पर तादृशी की आगे लौकिक अलौकिक व्यवहार की सिद्धि कैसे होगी? यह आकांक्षा होने पर तादृशी के व्यवहार की सिद्धि का प्रकार निवेदिभिः इन शब्दों से कह रहे हैं। निवेदिभिः अर्थात् स्वमार्गानुसार जिन्होंने आत्मनिवेदन कर लिया है वे; सर्वं शब्द का अर्थ है लौकिक एवं वैदिक; लौकिक का अर्थ है. पुत्रादि के विवाहादि के लिए, ब्राह्मण भोजनादि के लिए एवं स्वयं के उपभोग के लिए जो कुछ किया जाता हो, वह। वैदिक का अर्थ है- श्राद्ध-यज्ञ आदि जो कुछ भी किया जाता हो, वह। श्राद्ध के लिए भी निष्पादित पक्वान्न आदि एवं यज्ञ के लिए संपादित घृत-अन्नादि, धन- रत्नादि सभी भगवान को निवेदित कर के ही एवं भगवद्-निवेदन हो जाने के पश्चात् सभी कार्य करने चाहिए। धन-रत्नादि का भगवान की आज्ञानुसार उपयोग करना निवेदन है। वही श्रीमद् भागवत के सप्तमस्कंध में "विष्णु को निवेदित किए गये अन्न द्वारा अन्य देवों का यजन करना चाहिए। पितरों को भी वही देने से वह अनंत फलदायी होता है" इन वचनों से स्मरण होता है एवं यही भक्तिमार्ग की मर्यादा है। 'मर्यादा' का अर्थ है- 'ऐसी आज्ञा जिसका उल्लंघन नहीं करन. चाहिए'। जिस प्रकार वेदादि की मर्यादा का उल्लंघन करके कार्य करने पर कर्ता दोष का भागी होता है, उस प्रकार यहाँ भी भक्तिमार्ग की मर्यादा का उल्लंघन करके कार्य करने पर भक्तिमार्गीय भी दोष का भागी होता है, यह बताने के लिए भक्त को संसार में रहने की मर्यादा कही है। इस प्रकार स्थितिः शब्द का विश्लेषण किया गया।
उपर दिए गए उदाहरण “वैदिकं श्राद्धयागादिकम् । श्राद्धार्थमपि निष्पादितं पाकादिकं सर्वं यागार्थ सम्पादितं घृतानादिकं संभारादिकं च सर्वं भगवते निवेद्यैव भगवन्निवेदनानन्तरं पश्चात्सर्वं कार्यमिति । संभाराणां तदाज्ञापूर्वकमेव करणं निवेदनम्” से यह सुस्पष्ट हो ही जाता हैं की,
जेसे यज्ञ के लिए लाए हुए काष्ठ, समीधा, यज्ञापात्र, ईट आदि को सीधे भगवान के सामने भोग-नैवेद्य के साथ नहीं, ना ही उनका प्रयोग भगवान् की रसोई में चूल्हेभट्टि उपयोग करते हैं ना हि स्नान आदि के लिए जल गरम करने हेतु आग जलाने में उनका उपयोग नहीं करते हैं,
एवं
जेसे आपन बजार से मोबाईल खरीद कर लाए तो उस में भगवान के नाम की SIM डाल कर भगवान के पास नहीं रख देते की हे प्रभु पहले आप एक call लगा के किसी से बात कर लेना फिर मैं उस mobile को चलाऊँगा,
एवं,
कोई व्यक्ति बाजार से जूते खरीद के लाया हो और वह उस जूते को भगवान् को पहना दे तो यह गलत होगा परंतु जब वह व्यक्ति स्वयं उन जूतों को पहन कर दुनिया भर में कोई भी भगवद्सेवा कार्य हेतु कुछ भी करेगा जेसे दूध, फल, फूल, साक, सब्जी लेने जाना या कोई भी सेवा सम्बन्धित कार्य करेगा तब अपने आप उन जूतो का indirectly सेवा में सहयोग होने से उनका भगवान को समर्पण हो जाएगा,
वैसे ही
भगवद् आज्ञा मात्र से उन वस्तुओ का धर्मकार्य में उपयोग करते हैं, और उनका निवेदन/समर्पण directly अथवा indirectly अपने आप ही हो जाता हैं क्योंकि वह किसी ना किसी प्रकार से भगवान् श्रीकृष्ण के सेवा में सहयोग करते हैं।
एसे ही जो शिष्टाचार की बात श्रीगोकुलनाथजी अपने commentary में कर रहे थे(जिसका करसनदास मूलजी व साथियों द्वारा विपरीत अर्थ किया गया) उस का सही अर्थ ये हैं की विवाह एसी सदाचारी कन्या से करना चाहिए जो भगवद्सेवा में सहयोगी बन सके जो स्वयं की अर्धांगिनी बनते हुए पूरे घर-परिवार को संभाले, भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में सहयोग करें व स्वयं भी उसके खुद के घर में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करे। इसके साथ साथ अधार्मिक-आसुरी-भगवद्सेवा में असहयोग करे ऐसी स्त्री से विवाह नहीं करना चाहिए। सिर्फ और सिर्फ यही अर्थ ही श्रीगोकुलनाथजी अपनी commentary में कह रहे थे जिसको करसनदास मूलजी व उनके साथी लोग समझ नहीं पाए।
खैर आगे बढ़ते है और करसनदास मूलजी के लिखे हुए Editorial article के शेष भाग की समीक्षा करते हैं
The Primitive Religion of The Hindus and The Present Heterodox Opinions
Alas ! what a heresy this is, what a sham this is, and what a delusion this is ! We ask Jadunathjee Maharaj in what Ved, in what Puran, in what Shastra, and in what law-book it is written that one's married wife should be made over to a Maharaj or to a religious preceptor before being enjoyed. Not only one's wife, but one's daughter also is to be made over ! Alas ! in writing this, our pen will not move on. We are seized with utter disgust and agitation. To render blind people who see with their eyes and to throw dust in their eyes, and in the name of religion and under the pretence of religion to enjoy their tender maidens, wives and daughters, than this what greater heresy and what greater deceit ?
यहाँ पर भी करसनदास मूलजी वल्लभ सम्प्रदाय के सिद्धांतों की उनकी गलत समझ को बन गयी हैं उस गलत समझ के कारण आक्षेप-प्रश्न कर रहे हैं जिनका निराकरण हो चुका हैं। बार बार जिस प्रकार की असभ्य-असामाजिक-असंसदीय अभद्र भाषा व “enjoy” शब्द का बार बार प्रयोग महिलाओ के प्रति करसनदास मूलजी कर रहे हैं तो उस से यही समझ आता हैं की करसनदास मूलजी अपने subconscious mind से स्त्री को पुरुषों के शारीरिक सुख का साधन मान ने के अलावा और कुछ नहीं मानते। आगे जितना भी शब्दों का मायाजाल वे रचते है, बार-बार एक ही चीज़ दोहराते हैं इस से यही जान पड़ता हैं की उनके पास कोई तथ्यात्मक विषय है ही नहीं बोलने को और वो उनके असत्य वाक्य को बार बार दोहरा कर षड्यन्त्र के सिद्धांत “Repeat a lie often enough and it becomes the truth” इस law of propaganda का प्रयोग करते हुए सनातन हिन्दु धर्म, उसके जगद्गुरु आचार्य श्रीवल्लभाचार्य जी महाप्रभु एवं उनके वल्लभ सम्प्रदाय(पुष्टिमार्ग) को बदनाम करने का कुप्रयास दुस्साहस कर रहे हैं।
The Primitive Religion of The Hindus and The Present Heterodox Opinions
In the Kaliyug many other heresies and many sects have arisen besides that of Valabhacharya, but no other sectaries have ever perpetrated, such shamelessness, subtilty, immodesty, rascality, and deceit as have the sect of the Maharajas. When we use such severe terms as these, our simple Hindu friends are wroth with us, and in consequence of that wrath of theirs, we have had and have much to endure. But when throwing dust in the eyes of simple people, the Maharajas write in their books about enjoying the tender maidens, the peoples' wives and daughters, and they enjoy them accordingly, great flames spring up within our inside, our pen at once becomes heated on fire, and we have to grieve over our Hindu friends and over their weak powers of reflection. Jadunathjee Maharaj has commenced issuing a small work styled " The Propagator of our own Religion"; we ask him in what way do you wish to effect the propagation of religion? Your ancestors having scattered dust in the eyes of simple people, made them blind? Do you wish to make them see, or taking a false pride in the upholding of your religion, do you wish to delude simple people still more? Jadunathjee Maharaj, should you wish to propagate or to spread abroad religion, then do you personally adopt a virtuous course of conduct and admonish your other Maharajas. As long as the preceptors of religion shall themselves appear to be immersed in the sea of licentiousness for so long they shall not be competent to convey religious exhortation. Gokulnathji having composed the commentary abovementioned, has attached to your Vaishnava persuasion a great blot of ink. Let that be first removed. Scorn the writer of the commentary. Oh, you Maharajas, acting up to that commentary, defile the wives and daughters of your devotees. Desist from that and destroy at once immorality such as that of the company at the Ras festival. As long as you shall not do so, for so long you cannot give religious admonition, and propogate your own religious faith; do you be pleased to be assured of that.
करसनदास मूलजी के द्वारा लगे/लगवाये गए सभी कुतर्कों, आक्षेपों का अति विस्तार से समूल सर्वाङ्गीण खंडन पहले किया ही करा जा चुका हैं। यह तो सर्वमान्य है, वो खुद भी मानते है की उन्हें कोई भी शास्त्र अध्ययन, सनातन हिन्दु धर्म का ज्ञान नहीं हैं। परंतु करसनदास मूलजी ने जो कलियुग में उत्पन्न अन्य मतो से वल्लभ-सम्प्रदाय(पुष्टिमार्ग) की तुलना करे हैं उस से यह भी स्वतः सिद्ध हो जाता हैं की करसनदास मूलजी को भारतीय इतिहास का भी ज्ञान नहीं हैं।
तथ्यहीन बेबुनियाद व्यर्थ की बाते करने के अलावा करसनदास मूलजी ने और कुछ किया ही नहीं। अगर उन्हे धर्म, शास्त्र, लोक व्यवहार, समाजशास्त्र का जरा सा भी परिपक्व ज्ञान होता तो वो एसी बाते नहीं करते, ना ही कोई स्वस्थ बुद्धि वाला व्यक्ति एसी बाते करता।
किम् अधिकम्।
सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्॥[36]
यो वै स धर्मः सत्यं वै तत् तस्मात् सत्यं वदन्तमाहुः धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तम् सत्यं वदतीति एतद्ध्येवैतदुभयं भवति [37]
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥[38]
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
Table of References
[1] Krishnaashray Stotra by Shrimad Vallabhacharya Ji Mahaprabhu.
[2] Prakashanand Saraswati, Swami, 1929- The true history and the religion of India : a concise encyclopedia of authentic Hinduism, c1999, ISBN: 0967382319, 9788120817890, available at https://lccn.loc.gov/99065101
[3] Mazumdar, Akshoy Kumar. The Hindu History. India BC3000 to 1200 AD: Nagendra Kumar Roy City Publishing House Faridabad. 1920. Can be freely accessed at https://ignca.gov.in/Asi_data/14202.pdf and https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.103863/page/n75/mode/2up?view=theater&q=3102
[4] Godwin, Joscelyn (2011). Atlantis and the Cycles of Time: Prophecies, Traditions, and Occult Revelations. Inner Traditions. pp. 300–301. ISBN 9781594778575
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[6] Burgess, Rev. Ebenezer (1935) 1860. "Ch. 1: Of the Mean Motions of the Planets.". In Gangooly, Phanindralal (ed.). Translation of the Surya-Siddhanta, A Text-Book of Hindu Astronomy; With notes and an appendix. University of Calcutta. pp. 7–9 (1.13–17)
[7] Gupta, S. V. (2010). "Ch. 1.2.4 Time Measurements". In Hull, Robert; Osgood, Richard M. Jr.; Parisi, Jurgen; Warlimont, Hans (eds.). Units of Measurement: Past, Present and Future. International System of Units. Springer Series in Materials Science: 122. Springer. pp. 6–8. ISBN 9783642007378
[8] The Induand the Rg-Veda, Page 16, By Egbert Richter-Ushanas, ISBN 81-208-1405-3
[11] Kali Yuga: Inscriptional Evidence. India: BlueRose Publishers, 2020. ISBN:9789390380725, 9390380723. Authored by Dr. M.L. Raja, Alagappa University. “A description of 436 inscriptions in Kali yuga date A source book to rewrite Indian History”
[14] मनुस्मृति 2.12
[15] इतरेष्वागमाद् धर्मः पादशस्त्ववरोपितः। चौरिकानृतमायाभिर्धर्मश्चापैति पादशः॥ - मानुस्मृति 1.82
[16] मनु
[17] यमः
[18] महाभारत शांतिपर्व - 259/03
[19] आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1.1.1 - 1.1.3
[20] श्रीवल्लभाचार्यजी कृत सुबोधिनी 1.4.19
[21] मनु स्मृति 2.6
[22] बृहस्पति
[23] याज्ञवल्क्य
[24] मनु
[25] वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि व्याससूत्राणि चैव हि। समाधिभाषा व्यासस्य प्रमाणं तच्चतुष्टयम्॥ (शास्त्रार्थप्रकरण 7) उत्तरं पूर्व सन्देह वारकं परिकीर्तितम्। अविरुद्धं तु यत्त्वस्य प्रमाणं तच्च नान्यथा। एतद्विरुद्धंयत्सर्वं न तन्मानं कथञ्चन॥ (शास्त्रार्थ प्रकरण 8)
[26] वेदश्च प्रमाणम्। (श्रीवल्लभाचार्यजी कृत सुबोधिनी 1.1.2)
[27] प्रमाणान्तराच्च वेदो बलिष्ठः। (श्रीवल्लभाचार्यजी कृत सुबोधिनी 1.4.19)
[28] तस्माद् वेदातिरिक्तमार्गा: स्वतन्त्रं न फलसाधकाः किन्तु अङ्गभावमेव प्राप्य यादृशं प्रमेयं वेदोक्तं तादृशमेव साधयन्तः फलाय भवन्ति इति निष्कर्षः . तदभावेऽपि वेदोक्तमार्गेण केवलेनापि निस्तारः इति आह अतः सएव सद्धर्मैः इति॥ (सर्वनिर्णयप्रकरण २१० स्वोपज्ञप्रकाश)
[29] विष्णुधर्म६.३१, वधुलस्मृति
[30] ब्रह्मवैवर्तपुराण 4.129.49 to 4.129.50
[31] ब्रह्मवैवर्तपुराण 4.129.49 to 4.129.60
[32] ब्रह्मवैवर्तपुराण 4.90.32-33
[33] https://indianculture.gov.in/rarebooks/report-maharaj-libel-case-and-bhattia-conspiracy-case-connected-it
[34] “Repeat a lie often enough and it becomes the truth”, is a law of propaganda. Among psychologists something like this known as the "illusion of truth" effect. - https://www.bbc.com/future/article/20161026-how-liars-create-the-illusion-of-truth
[35] श्रीवल्लभाचार्य जी कृत सिद्धांतसरसीय ग्रंथ पर श्रीगोकुलनाथजी द्वारा रचित विवृति
[36] मुण्डकोपनिषद् 3.1.6
[37] बृहदारण्यक उपनिषद 1.4.14
[38] श्रीमद् भगवद् गीता 18.78